Rajesh Raj Ki Nazar Se .......
Sunday, 19 May 2013
Saturday, 13 October 2012
भोजपुरी फिल्म वालों सावधान !
हिंदी सिनेमा की नज़र भोजपुरी के बाज़ार पर है !
जब दबंग , गैंग ऑफ़ वासेपुर जैसी फिल्म हिंदी में
बनेगी तो भोजपुरी में बन रही घिसीपिटी फिल्म का क्या होगा ?
ये भोजपुरी के महान फिल्म mekar को सोचना होगा ।
जब दबंग , गैंग ऑफ़ वासेपुर जैसी फिल्म हिंदी में
बनेगी तो भोजपुरी में बन रही घिसीपिटी फिल्म का क्या होगा ?
ये भोजपुरी के महान फिल्म mekar को सोचना होगा ।
Thursday, 13 September 2012
क्यों नहीं बनती अच्छी फ़िल्में भोजपुरी में ?
क्यों नहीं बनती अच्छी फ़िल्में भोजपुरी में ?
जिसे पुरे परिवार के साथ देखा जा सके ।
अच्छी फिल्म से मेरा मतलब है, जिसमे एक कहानी हो , अच्छी कहानी हो तो और अच्छी बात है ! उस कहानी की प्रस्तुति अच्छी हो । तकनिकी रूप से मजबूत हो । music अच्छा हो और जिसे पुरे परिवार के साथ देखा जा सके ।
अब इस बात पर गौर करे कि आखिर क्या वजह कि सालाना 100फिल्मों के इस मंडी में एक अच्छी फिल्म नहीं बनती ?
हिट या फ्लॉप की बात छोड़ दें ।
देखिये ,जहाँ तक मैं समझता हूँ कि किसी भी भाषा में फिल्म बनाने के लिए उस भाषा का ज्ञान और उससे लगाव होना जरुरी है ।अगर ऐसा नहीं है
तो आप उस भाषा के, वहां की संस्कृति का emotion ही नहीं समझ पायेंगे और तब ऐसी ही फिल्म बनेंगी जैसी
आज बन रही है जिसमे भोजपुरी की महक ही नहीं है । ये तो खांटी मुम्बैया फिल्म
है जिसमे भोजपुरी के नाम पर केवल संवाद और गीत है । संवाद भी ऐसा कि एक ही फिल्म में एक चरित्र आरा की भोजपुरी, दूसरा जोनपुर तो तीसरा बनारस की भोजपुरी बोलता नज़र आता है ।इससे पता चलता है कि director
को भाषा की कोई खास जानकारी नहीं है । ऐसे में आप छेत्रीये भाषा में बनायी गयी फिल्म के साथ इंसाफ ही नहीं कर सकते । ठीक वैसे ही जैसा कि
निर्देशक अशोक तलवार ने अमर साहित्य मैला आँचल पर बनाये गए धारावाहिक (1991) के साथ किया । मैं उस धारावाहिक में था ,वहां हो रहे problem से मैंने जाना कि जिस भाषा में आप फिल्म बनाते है तो आपको उस भाषा
की समझ होनी ही चाहिए ।तभी आप अच्छी script लिख सकते हैं और अच्छी script ही अच्छी फिल्म की बुनियाद है ।
भोजपुरी सिनेमा का दुर्भाग्य ये भी है कि ज्यादातर लोग जो भोजपुरी सिनेमा बनाते है वो भोजपुरिया नहीं है ।
भोजपुरी director भोजपुरी साहित्य को पढने से यहाँ की संस्कृति को समझने से कतराते है या समझना नहीं
चाहते । उन्हें लगता है कि भोजपुरी ही तो बनानी है इसके लिए इतना मेहनत क्यों करें ?
सिनेमा के student होने की वजह से मैंने जाना है कि अच्छी फिल्म बनाने के लिए director को साहित्य को
पढ़ना और देश - दुनिया की फिल्म को देखना चाहिए ।
अब तो रविकिशन भी ये मानते है कि भोजपुरी को यदि बचाना है तो इसके लिए film maker को नयी कहानिओ
पर सोचना होगा और इसके लिए उन्हें साहित्य पढना होगा ।
जिसे पुरे परिवार के साथ देखा जा सके ।
अच्छी फिल्म से मेरा मतलब है, जिसमे एक कहानी हो , अच्छी कहानी हो तो और अच्छी बात है ! उस कहानी की प्रस्तुति अच्छी हो । तकनिकी रूप से मजबूत हो । music अच्छा हो और जिसे पुरे परिवार के साथ देखा जा सके ।
अब इस बात पर गौर करे कि आखिर क्या वजह कि सालाना 100फिल्मों के इस मंडी में एक अच्छी फिल्म नहीं बनती ?
हिट या फ्लॉप की बात छोड़ दें ।
देखिये ,जहाँ तक मैं समझता हूँ कि किसी भी भाषा में फिल्म बनाने के लिए उस भाषा का ज्ञान और उससे लगाव होना जरुरी है ।अगर ऐसा नहीं है
तो आप उस भाषा के, वहां की संस्कृति का emotion ही नहीं समझ पायेंगे और तब ऐसी ही फिल्म बनेंगी जैसी
आज बन रही है जिसमे भोजपुरी की महक ही नहीं है । ये तो खांटी मुम्बैया फिल्म
है जिसमे भोजपुरी के नाम पर केवल संवाद और गीत है । संवाद भी ऐसा कि एक ही फिल्म में एक चरित्र आरा की भोजपुरी, दूसरा जोनपुर तो तीसरा बनारस की भोजपुरी बोलता नज़र आता है ।इससे पता चलता है कि director
को भाषा की कोई खास जानकारी नहीं है । ऐसे में आप छेत्रीये भाषा में बनायी गयी फिल्म के साथ इंसाफ ही नहीं कर सकते । ठीक वैसे ही जैसा कि
निर्देशक अशोक तलवार ने अमर साहित्य मैला आँचल पर बनाये गए धारावाहिक (1991) के साथ किया । मैं उस धारावाहिक में था ,वहां हो रहे problem से मैंने जाना कि जिस भाषा में आप फिल्म बनाते है तो आपको उस भाषा
की समझ होनी ही चाहिए ।तभी आप अच्छी script लिख सकते हैं और अच्छी script ही अच्छी फिल्म की बुनियाद है ।
भोजपुरी सिनेमा का दुर्भाग्य ये भी है कि ज्यादातर लोग जो भोजपुरी सिनेमा बनाते है वो भोजपुरिया नहीं है ।
भोजपुरी director भोजपुरी साहित्य को पढने से यहाँ की संस्कृति को समझने से कतराते है या समझना नहीं
चाहते । उन्हें लगता है कि भोजपुरी ही तो बनानी है इसके लिए इतना मेहनत क्यों करें ?
सिनेमा के student होने की वजह से मैंने जाना है कि अच्छी फिल्म बनाने के लिए director को साहित्य को
पढ़ना और देश - दुनिया की फिल्म को देखना चाहिए ।
अब तो रविकिशन भी ये मानते है कि भोजपुरी को यदि बचाना है तो इसके लिए film maker को नयी कहानिओ
पर सोचना होगा और इसके लिए उन्हें साहित्य पढना होगा ।
Sunday, 2 September 2012
हिंदी फिल्म की कहानी +हिंदी फिल्म का शीर्षक = आज का भोजपुरी सिनेमा !!!!
भोजपुरी सिनेमा अपने चरम पर है . हर सप्ताह एक-दो फिल्म रिलीज हो रही है . देश की बात क्या इसने बिदेशों में भी अपनी जगह बना ली है .लेकिन इससे भोजपुरी सिनेमा का तक़दीर नहीं बदला है ............
बदले भी तो कैसे ? यहाँ हर निर्माता - निर्देशक के पास हिंदी फिल्म की एक चुराई गई कहानी होती है और वो उसी कहानी पर फूहड़ प्रस्तुति के साथ फिल्म बनाते है। कहानी के साथ-साथ अब तो हिंदी फिल्मों शीर्षक भी भोजपुरी फिल्म में बिना किसी झिझक के इस्तमाल होने लगा ह ! जैसे -कालिया ,खून -पसीना ,लावारिस ,हीरो ,अँधा कानून , गंगा जमुना सरस्वती ,डकैत अदि !इन शीर्षक से ये पता ही नहीं चलता है की ये भोजपुरी फिल्म है या हिंदी फिल्म या फिर दब की गई साऊथ की फिल्म ! निर्माता-निर्देशक या तो दर्शकों को धोखा रहे है या फिर खुद को ! भोजपुरी फिल्मों ज्यादातर निर्माता-निर्देशक के पास अपनी खुद की सोच की कमी है शायद ,तभी तो अबतक इनकी कहानी ठाकुर और उसके अत्याचार से आगे नहीं निकली है !हाल में रिलीज एक फिल्म की कहानी का भी यही हाल है, जिसमे हीरो ठाकुर के अत्याचार का बदला लेने के लिए एक आम आदमी कल्लू से कालिया बन जाता है !है ना अमिताभ जी कालिया की कहानी !
आमतोर पर भोजपुरी फिल्म का मतलब बालीवूड के बी और सी ग्रेड मसाला फिल्मों की कहानी , तक़रीबन नंगी , फुदकती और हिंगलिश मुद्रा की भोजपुरी ( जाने कहाँ की ) बोलती हिरोइन का बेड सीन देह दर्शन कराता आइटम
सॉंग और बचकाना फाइट सीन ! ये बात अब सिर्फ हम नहीं कहते दर्शक भी कहने लगे है !
परन्तु मुश्किल ये है की भोजपुरी फिल्म के लोग इस सच्चाई से रूबरू होना नहीं चाहती !उन्हें भ्रम की दुनिया में रहना अच्छा लगता है ! या फिर कह सकते है इण्डस्ट्रीज की चिंता पर जब अपना व्यक्तिगत स्वार्थ हावी हो जाता है तो एक भ्रमजाल का निर्माण हो जाता है !
भोजपुरी फिल्म के निर्माता-निर्देशक जितनी जल्दी हो सके इस भ्रमजाल से निकल जाये की वो जो भी फिल्म बना देंगे वो दर्शक स्वीकार कर लेंगे !वो ये भी कहना छोड़ दे की भोजपुरी फिल्म में यही चलता है ! भोजपुरी निर्माता -निर्देशक सावधान हो जाये और अपनी सोच बदल ले नहीं तो दर्शक उन्हें बदल देगी !क्योंकि उनके सामने "गैंग ऑफ़ बासेपुर " ( इस फिल्म में गाली के प्रयोग से मैं सहमत नहीं ) या "जीना है तो ठोक डाल " जैसी फिल्मों का विकल्प तैयार हो चूका है आगे भी होगा ..................!
Wednesday, 22 August 2012
Subscribe to:
Posts (Atom)